Natasha

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राजा की रानी

“दोनों ही एक-से हैं।” कहकर राजलक्ष्मी भीतर चली गयी। कहती गयी, “काम-काज करे तो कब? हरामजादी छुट्टी दे तब न!”

वास्तव में, असह्य हो गया था; इनकी गाली-गलौज और मार-पीट का मुकद्दमा मैंने और भी दो-एक बार किया है, पर जब कोई फल नहीं हुआ तब सोचा कि खाना-पीना हो जाने के बाद बुलवाकर आज आखिरी कर दूँगा। पर बुलाना न पड़ा, दोपहर को ही मुहल्ले के स्त्री-पुरुषों- से घर भर गया। नवीन ने कहा, “बाबूजी, उसको मैं नहीं चाहता- बिगड़ी हुई औरत है। वह मेरे घर से निकल जाय।”

मुखरा मालती ने घूँघट के भीतर से कहा, “वह मेरा साँखा-नोआ¹ खोल दे।”

नवीन ने कहा, “तू मेरी चाँदी की पौंची लौटा दे।”

मालती ने उसी वक्त अपने हाथों से पौंची उतारकर फेंक दी।

नवीन ने उसे उठाकर कहा, “मेरा टीन का बकस भी तू नहीं रख सकती।”

मालती ने कहा, “मैं नहीं जानती।” यह कहकर उसने ऑंचल से चाबी खोलकर उसे पैरों के पास फेंक दी।

नवीन ने इस पर वीर-दर्प के साथ आगे बढ़कर मालती के 'साँखा' पट-पट करके तोड़ दिये; और 'नोआ' खोलकर दीवार के उस तरफ फेंक दिया। बोला, “जा, तुझे विधवा कर दिया।”

मैं अवाक् हो गया! एक वृद्ध ने तब मुझे समझाया कि ऐसा किये बिना मालती दूसरा निकाह जो नहीं कर सकती- सब कुछ ठीक-ठाक हो गया है।

बातों ही बातों में घटना और भी विशद हो गयी। विश्वेश्वर के बड़े दामाद का भाई आज छै महीने से दौड़-धूप कर रहा है। उसकी हालत अच्छी है, विशू को वह बीस रुपये नगद देगा और मालती को उसने छड़े, चाँदी की चूड़ियाँ और सोने की नथ देने के लिए कहा है- यहाँ तक कि ये चीजें उसने विशू के हवाले कर भी दी हैं।

¹ शंख और लोहे की बनी एक प्रकार की चूड़ी जो बंगालियों में सुहाग का चिह्न समझी जाती है।

सुनकर सारी घटना मुझे बहुत ही भद्दी मालूम हुई। अब इसमें सन्देह न रहा कि कुछ दिनों से एक बीभत्स षडयन्त्र चल रहा है, और मैंने उसमें शायद बिना जाने मदद ही की है। नवीन ने कहा, “मैं भी यही चाहता था। शहर में जाकर अब मजे से नौकरी करूँगा- तेरी जैसी बीसों शादी के लिए तैयार हैं। गंगामाटी का हरी मण्डल तो अपनी लड़की के लिए न जाने कब से खुशामद कर रहा है- उसके पैरों की धूल भी तू नहीं है।” यह कहकर वह अपनी चाँदी की पौंची और ट्रंक की चाबी अण्टी में लगाकर चल दिया। इतनी उछल-कूद करने पर भी उसका चेहरा देखकर मुझे ऐसा नहीं मालूम हुआ कि उसकी शहर की नौकरी या हरी मण्डल की लड़की इन दोनों में से किसी की भी आशा ने उसके भविष्य को काफी उज्ज्वल कर दिया है।

रतन ने आकर कहा, “बाबूजी, माँजी ने कहा है कि इन सब गन्दे झगड़ों को घर से निकाल बाहर कीजिए।”

मुझे करना कुछ भी न पड़ा, विश्वेश्वर अपनी लड़की को लेकर उठ खड़ा हुआ; और इस डर से कि कहीं वह मेरे चरणों की धूल लेने न आ जाय, मैं झटपट घर के भीतर चला गया। मैंने सोचने की कोशिश की कि खैर, जो हुआ सो अच्छा ही हुआ। जब कि दोनों का मन फट गया है, और दूसरा उपाय जबकि है, तब व्यर्थ के क्रोध से रोजमर्रा मार-पीट और सिर-फुड़ौवल करके दाम्पत्य निभाने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा हुआ।

परन्तु आज सुनन्दा के घर से लौटने पर सुना कि कल का फैसला कतई अच्छा नहीं हुआ। सद्य:-विधवा मालती पर से नवीन ने, अपना अधिकार पूर्णत: हटा लेने पर भी मार-पीट का अधिकार अब भी नहीं छोड़ा है। वह इस मुहल्ले से उस मुहल्ले में जाकर शायद सबेरे से ही छिपा हुआ बाट देख रहा होगा और अकेले में मौका पाते ही ऐसी दुर्घटना कर बैठा है। पर मालती कहाँ गयी?

सूर्य अस्त हो गया। पश्चिम के जंगल से मैदान की तरफ देखता हुआ सोच रहा था कि जहाँ तक सम्भव है, मालती पुलिस के डर के मारे कहीं छिप गयी होगी-मगर नवीन को जो उसने पकड़वा दिया, सो अच्छा ही किया।

राजलक्ष्मी संध्या-प्रदीप हाथ में लिये कमरे में आयी और कुछ देर ठिठककर खड़ी रही, पर कुछ बोली नहीं। चुपके से निकलकर बगल के कमरे की चौखट पर उसने पैर रखा ही था कि किसी एक भारी चीज के गिरने के शब्द के साथ-साथ वह अस्फुट चीत्कार कर उठी। दौड़कर पहुँचा, तो देखता हूँ कि एक बड़ी कपड़े की पोटली-सी दोनों हाथ बढ़ाकर उसके पैर पकड़े अपना सिर धुन रही है। राजलक्ष्मी के हाथ का दीआ गिर जाने पर भी जल रहा था, उठाकर देखते ही वही महीन सूत की चौड़ी काली किनारी की साड़ी दिखाई दी।

कहा, “यह तो मालती है।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “अभागी कहीं की, शाम के वक्त मुझे छू दिया। ऐं! यह कैसी आफत है!”

दीआ के उजाले में गौर से देखा कि उसके माथे की चोट में से फिर खून गिर रहा है और राजलक्ष्मी के पैर लाल हुए जा रहे हैं, और साथ ही अभागिन का रोना मानो सहस्र धाराओं में फटा पड़ रहा है; कह रही है, “माँजी बचाओ मुझे-बचाओ-”

राजलक्ष्मी ने कटु स्वर में कहा, “क्यों, अब तुझे और क्या हो गया?”

उसने रोते हुए कहा, “दरोगा कहता है कि कल सबेरे ही उसका चालान कर देगा- चालान होते ही पाँच साल की कैद हो जायेगी।”

मैंने कहा, “जैसा काम किया है वैसी सजा भी तो मिलनी चाहिए!”

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